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प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास

बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2793
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 11

श्रेणी संगठन

(Guild Organization)

प्रश्न- भारत में आर्थिक श्रेणियों के संगठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए।

अथवा
प्राचीन भारत में श्रेणियों के संगठन तथा कार्यों का विवरण दीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. पूर्व मध्यकाल में श्रेणियों की दशा बताइए।
2. दक्षिण भारत में श्रेणियों की दशा बताइए।
3. श्रेणियों के कार्यों पर प्रकाश डालिए।
4. श्रेणियों का संगठन बताइए।
5. श्रेणी संगठनों का महत्व बताइए।

उत्तर-

सभ्यता की वर्तमान अतिविकसित स्थिति में जो बात सबसे अधिक प्रभावोत्पादक रही है वह है सहकारिता की भावना। जनतंत्रीय शासन की दिशा में किये गये विशाल प्रयोग और सारे संसार में फैली हुई बड़ी आर्थिक संस्थायें, जिन्हें आज हम अपने चारों ओर देखते हैं, वर्तमान निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं। उनका उद्भव जिस संगठित प्रणाली से हुआ है उसे और सफलता के वर्तमान उच्च स्तर को यदि आज की संस्कृति का विशिष्ट तत्व माना जाये तो युक्तिसंगत कहा जायेगा। ऐसा ठीक ही समझा जाता है कि कोई भी राष्ट्र, जिसमें संस्कृति का यह सारभूत तत्व विद्यमान नहीं है, संसार की प्रगति के साथ चलने में समर्थ नहीं हो सकता, मानव में सहकारिता की भावना एक सामाजिक वृत्ति है, आदिम काल से हमें जानकारी मिलती है यह वृत्ति किस न किसी रूप में मनुष्य समाज में विद्यमान रही है। प्राचीनकाल में वाणिज्य और व्यवसाय के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई उसका बड़ा श्रेय उस युग के शिल्पियों और व्यापारियों के संगठनों को है। यहाँ विभिन्न युगों का संगठन इस प्रकार रहा कि शिल्पियों एवं व्यावसायियों के संगठनों के समुचित रूप से महत्व प्राप्त हुआ। यही कारण था कि उन्होंने अपने-अपने अलग संगठन बनाये। देश के आर्थिक बिकास में महान योगदान दिया।

प्राचीन भारत में प्रत्येक क्षेत्र में सामुदायिक भावना अथवा सामूहिक भावना का बोलबाला था। इस दृष्टि से समाज में विविध वर्गों के संघ और संगठन बने हुए थे। यह संघ संगठन अनेक प्रकार के शासन के संचालन में सहायता देते थे। सामाजिक जीवन में तो उनका महत्व था ही। वैदिक काल और ब्राह्मण काल में शिल्पियों और अन्य कर्मकारों के संगठन थे। इन संगठनों की श्रेणी, पूजा अथवा निगम कहा जाता था। श्रेणियों और समूहों का मूल कार्य था उत्पादन में योगदान करना। इस बात की चर्चा अनेक उपनिषदों और अन्य वैदिककालीन एवं ब्राह्मणकालीन ग्रन्थों में मिलती है।

श्रेणी का अर्थ

'श्रेणी' वह विशिष्ट शब्द है जो व्यापारियों या शिल्पियों के संगठन का परिचायक है - समाज या भिन्न जाति के, परन्तु समान व्यापार और उद्योग अपनाने वाले लोगों का निगम, यह संगठन मध्यकालीन यूरोप के गिल्डस से साम्य रखता है। प्राचीन साहित्य बौद्ध तथा ब्राह्मण अभिलेखों में श्रेणियों के प्रायः उल्लेख मिलते हैं और उनसे गौतम की उस विचारधारा की पुष्टि होती है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण व्यावसायिक शाखायें श्रेणियों के रूप में संगठित थी। इन श्रेणियों की संख्या न केवल विभिन्न युगों में बल्कि अलग-अलग स्थानों पर भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न रही होंगी। मूगपक्ख जातक में आया है कि एक राजा ने अपने संपूर्ण राजकीय वैभव के साथ यात्रा करते हुए चार वर्णों, अठारह श्रेणियों और अपनी संपूर्ण सेना को एकत्रित किया। इससे मालूम होता है कि राज्य में विभिन्न श्रेणियों को परम्परागत संख्या अठारह निर्धारित की गयी थी। यह निश्चित करना सम्भव नहीं है कि ये 18 श्रेणियाँ क्या थीं। परन्तु साहित्य और अभिलेखों में उपलब्ध उल्लेखों को इकट्ठा करने पर हमें श्रेणियों की बहुत बड़ी संख्या मिलती है। इस प्रकार संग्रहीत निम्नांकित सूची इस संगठन के व्यापक रूप को सूचित करती है -

1. लकड़ी का काम करने वाले (बढ़ई),
2. सोना-चांदी आदि धातुओं का काम करने वाले,
3. पत्थर का काम करने वाले
4. चर्मकार
5 दस्तकार,
6. ओदयंत्रिक (पनचक्की चलाने वाले),
7. बसकर (बांस का काम करने वाले),
8. कसकर (ठठेरे) 9. रत्नाकर (जौहरी),
10. बुनकर या जुलाहे,
11. कुम्हार,
12. तिल-विषक (तेली),
13. डलिया बनाने वाले
14. रंगरेज,
15. चित्रकार,
16. धान्य के व्यापारी,
17. कृषक, 18. मछुआरे
19. कसाई,
20. नाई,
21. मालाकार (माली),
22. नाविक,
23. चरवाहे
24. संधि व्यापारी,
25. डाकू-लूटेरे,
26. वनआरक्षी,
27. महाजन।

कौटिल्य ने श्रमिकों या दिन में मजदूरी करने वालों की श्रेणियों के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये हैं। कमाई को श्रेणी के सदस्यों में बराबर बांटा जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यत्र-तत्र पाये जाने वाले उल्लेखों से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय की श्रेणियाँ प्रभूत सैनिक शक्तिवाली थी।

श्रेणी व्यवस्था में विकास की अवस्था धर्मसूत्रों के काल ( ई० पूर्व दूसरी सदी तक ) में दिखाई पड़ती है। श्रेणी व्यवस्था का पहला कदम यह था कि उसके प्रत्याशी सदस्यों में पारस्परिक विश्वास उत्पन्न किया जाये। श्रेणी को सामूहिक रूप में अपने सदस्यों के ऊपर महत्वपूर्ण कार्यकारिणी तथा न्यायिक शक्ति प्राप्ति थी।

स्मृतिकाल ( ई० पू० दूसरी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक)

इस काल में श्रेणी व्यवस्था की उन्नति दिखाई देती है। मनु ने कानून की शक्ति के रूप में श्रेणियों का उल्लेख किया है। मनुस्मृति के अनुसार - "यदि कोई मनुष्य जो ग्राम अथवा देश संघ से सम्बन्धित है, शर्त स्वीकार के लोभवश उसे तोड़ देते हैं तो राजा उसे अपने राज्य से निकाल दे। याज्ञवल्क्य स्मृति तथा विष्णु स्मृति में भी इस प्रकार का उल्लेख देखने को मिलता है। अतः हम विश्वास पूर्ण यह कह सकते हैं कि ईस्वी सन् के तुरन्त बाद ही श्रेणी संगठन राज्य की राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान पा चुका था। इस कारण श्रेणियाँ अधिक संख्या में विकसित हुई और साधारण जनता तथा राज्य का विश्वास भी उन पर अधिक रूप में पड़ा। लोगों ने नियमित ब्याज पर इसमें अपना धन जमा करना शुरू कर दिया। इसका प्रमाण अभिलेख है।

गुप्तकाल में श्रेणियों की उन्नति एवं विकास - गुप्तकाल में अनेक छोटे-बड़े उद्योगों की उन्नति करने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। गुप्तकाल में भारत का व्यापार जब रोम साम्राज्य से बढ़ा तब तभी श्रेणियों का विकास तेजी से हुआ। श्रेणियों को इस काल के विशेष अधिकार प्राप्त हुए। अनके आपसी झगड़े उन्हीं की कार्यकारिणी तय करने लगी। इस काल में श्रेणियों के कोष में साधारण जनता अपना धन जमा करती थी। श्रेणी के सदस्य मिलाकर मंदिर भी बनवाते थे।

पूर्व मध्यकाल में श्रेणियों की स्थिति - इस समय में श्रेणी के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध ढीले हो चुके थे। कमजोर संगठन के कारण इनका महत्व कम हो गया था। सामन्तवाद तथा ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था के कारण इनका पतन हुआ। अब साधारण जनता अपना धन मंदिरों में जमा करने लगी। इनके आपसी झगड़ों का फैसला अब राज्य के द्वारा होने लगा था। परन्तु महाजनों की श्रेणी का इस काल में भी महत्व था। ऐसी श्रेणियाँ स्वयं अपने कानून बनाती थीं जिनका उल्लंघन करने पर दंड दिया जाता था।

दक्षिण भारत में श्रेणियों की स्थिति - दक्षिण में श्रेणियाँ स्थानीय बैंक तथा खजाने का कार्य करती थी। हर व्यवसाय की अपनी श्रेणी थी। यह संगठन संपूर्ण भारत में फैला हुआ था और प्रत्येक श्रेणी के सदस्यों की संख्या 500 तक थी। दक्षिण में 200 सालों तक इनके द्वारा अच्छे आर्थिक कार्य किये गये।

श्रेणियों का संगठन

प्राचीनकाल में शिल्पी एवं व्यापारियों को अपना एक संगठन था, इस संगठन को 'आर्थिक संघ' अथवा 'श्रेणी' (Guild ) कहा जाता था। साहित्यिक प्रमाणों के अध्ययन से विदित होता है कि उत्तर वैदिक काल में 'श्रेणियों का संगठन प्रारम्भ हुआ था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, बौद्ध जातक कथाओं एवं स्मृति ग्रन्थों में इन श्रेणियों के विषय में वर्णन मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इन श्रेणियों का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसकी सत्ता को स्वीकार किया गया है।

अर्थशास्त्र - वैदिक साहित्य में आर्थिक संगठनों के विषय में बहुत स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु बौद्ध साहित्य एवं स्मृति ग्रन्थों में श्रेणियों के संगठन कार्यों के विस्तृत विवरण के साथ ही तस्करों के संगठन पर भी प्रकाश पड़ता है।

प्राचीन भारत के व्यावसायियों का अपना एक संगठन था, जिसे प्राचीन ग्रन्थों में 'श्रेणि'। कहा गया है। उरग जातक में 'श्रेणीमुख' शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसका तात्पर्य है श्रेणी में एक मुखिया अथवा प्रधान होता था। परन्तु स्मृति ग्रन्थों में श्रेणी के प्रधान को 'ज्येष्ठ' कहा गया है। श्रेणी में कई सदस्य होते थे, उन सदस्यों में जो सबसे वरिष्ठ व धनी सदस्य होता था वही ज्येष्ठ कहलाता था। देश का अत्यधिक धनी व्यक्ति होने के कारण ज्येष्ठ का राजभवन में बड़ा आदर था। पाली ग्रन्थों से विदित होता है कि ज्येष्ठ राजा का आर्थिक मामलों में परामर्शदाता भी होता था। इन आर्थिक संघों के सहयोग एवं संगठन पर प्रकाश डालते हुए ए० एल० बाशम का कथन है-

“आर्थिक संघों का सहयोगी जीवन था और मध्ययुगीन यूरोप की भांति ध्वजा तथा मृगपच्छकेश पुंजों से बने श्रेष्ठता के प्रतीक चैवरों से जिनकी प्रतिनिधि होती थी। ये और अन्य चिन्ह कभी-कभी राजाज्ञा से प्रदान किये जाते थे और संघों के सदस्य स्थानीय उत्सवों में उन्हें साथ ले जाते थे। कुछ संघ मध्ययुगीन यूरोप की भांति अपनी निजी व्यवस्था रखते थे जो आवश्यकता के समय पर सहायक सेना के रूप में राजा की सेना की सेवा करती थी।"

ई० पू० छठी शताब्दी तक श्रेणियों का संगठन के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। प्रत्येक शिल्प श्रेणी का नेतृत्व प्रमुख या ज्येष्ठक के द्वारा होता था। जातकों में ऐसे शिल्पों की श्रेणियों के नाम देखने को मिलते हैं जिनकी श्रेणी उनके विकास तथा उन्नति में सहायक सिद्ध हो रही थी। वणिक श्रेणियों के मुखिया सेठ कहलाते थे। इनका अध्यक्ष महासेठ के नाम से पुकारा जाता था। इसके नीचे अनुजसेठि होते थे। जब दो श्रेणियों के मध्य किसी प्रकार का झगड़ा उठ खड़ा होता था तब महासेठ ही उसका फैसला किया करता था। श्रेणी के अध्यक्ष को प्रधान, प्रमुख, महत्तर, महर, पटे के नामों से भी पुकारा जाता था। याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति में श्रेणियों के संगठन तथा संविधान का पूर्ण रूप से उल्लेख है। प्रत्येक श्रेणी का एक प्रधान उसकी सहायता के लिए तीन से पांच तक प्रबन्ध अधिकारी होते थे जिनका चुनाव श्रेणी के सदस्यों के द्वारा होता था। ये अधिकारी ईमानदार, योग्य, आत्मसंयमी तथा वेदों के पंडित होते थे। अधिकारी श्रेणी के संपूर्ण सदस्यों पर नियंत्रण रहता था। गलत आचरण करने वाले श्रेणी के सदस्यों को दंड दिया जाता था। यदि अध्यक्ष किसी सदस्य को बेवजह सताता था तब सदस्य राजा के यहाँ उसके फैसले की अपील कर सकता था। यदि अध्यक्ष दोषी पाया जाता तब राजा उसके दिए हुए फैसले रद्द कर दिया करता था। इसका एक कार्यालय होता था जहाँ श्रेणी के सदस्य एक साथ बैठकर इसकी उन्नति के विषय में आपस में वाद-विवाद करते थे, जब श्रेणी की बैठक होनी होती थी, तब समस्त सदस्यों को उसकी सूचना पूरे तौर से दी जाती थी। सभी सदस्य श्रेणी के भवन में जमा होकर उस बैठक के एजेण्डे में दी हुई बातों पर विचार किया करते थे। सभा में सदस्य जो भाषण देते थे उनकी भाषा सभ्य होती थी।

प्रत्येक श्रेणी के निश्चित नियम तथा परम्परायें कानून के रूप में थीं जहां तक सम्भव होता राजा इनके द्वारा बनाये गये कानूनों को माना करता था इनको अपने सदृश्यों के झगड़ों को तय करने का अधिकार भी राज्य की ओर से मिला हुआ था। श्रेणी को सामूहिक अचल संपत्ति पर स्वामित्व का अधिकार मिला हुआ था। प्रबन्ध अधिकारी श्रेणी की ओर से ऋण ले सकता था। यदि ऐसा लिया धन वह अपने खर्च में ले लेता था, तब उसको दंड दिया जाता था प्राप्त धनराशि को पूरा करना पड़ता था। नये सदस्यों को हटाने का अधिकार साधारण सभा के हाथों में था। प्रबन्ध अधिकारी पूर्ण रूप से समूह के प्रति उत्तरदायी था। समूह उस प्रबन्ध अधिकारी को हटा सकता था जो किसी बड़े अपराध में फंस गया हो। जब समूह किसी कारण कुछ नहीं कर पाता था राजा हस्तक्षेप करता था।

गुप्तकाल की आर्थिक दशा का विवेचन हम इस प्रकार कर सकते हैं-

1. कृषि - गुप्तकाल में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि ही था। लोग गेहूँ, जौ, चावल, बाजरा, तिलहन, कपास आदि की खेती करते थे। राज्य की ओर से यह प्रयास था कि देश की अधिक से अधिक जमीन को खेतिहर बनाया जाये। अधिकांशतः भू-स्वामी स्वयं कृषि कर्म करता था। परन्तु कुछ भू-स्वामी दूसरों से भी कृषि कर्म कराते थे। दूसरों से कृषि कर्म कराने से समाज में बेगार प्रथा का जन्म हुआ। गुप्त नरेश कृषि कर्म को प्रधानता देते थे, राज्य की ओर से सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। जूनागढ़ अभिलेख से विदित होता है कि सुदर्शन झील जो सिंचाई के काम में आती थी, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था, टूट जाने के परिणामस्वरूप स्कन्दगुप्त ने इसकी मरम्मत करायी थी।

2. उद्योग - गुप्त समाज में कुंटीर उद्योग-धन्धों का भी प्रचलन था। समाज में कुम्हार मिट्टी के बर्तन, लोहार, लोहे के बर्तन, बढ़ई लकड़ी के समान एवं स्वर्णकार आभूषण आदि बनाते थे। समाज में अनेक व्यापारिक संस्थाएँ थीं। राजा की ओर से इन संस्थाओं (श्रेणियों) को पूरा सम्मान प्राप्त था, जैसाकि नारद स्मृति से विदित होता है

पार्षाण्डनैगल श्रेणि पूगवाह गणादिषु।
संरक्षेत्समयं राजा दुर्गे जनपदे तथा।

गुप्तकाल में अनेक छालों के माध्यम से सूती, ऊनी एवं रेशमी कपड़े बनाये जाते थे। पुरातात्विक उत्खनन से ज्ञात होता है कि स्वर्णकार, स्वर्ण, रजत, हाथी के दांत एवं मोतियों से अनेक आभूषण तैयार करते थे। उत्खन्न् से अनेक पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिससे विदित होता है कि शिल्पियों का व्यवसाय अच्छी दशा में था। आज के लगभग डेढ़ हजार वर्ष गुप्तकालीन मेहरौली लौह स्तम्भ लेख (जो लगभग छः टन का है) ग्रीष्म वर्षा एवं सर्दी के थपेड़ों को खाता हुआ आज भी जंग मुक्त जीवन है जो धातु निर्माण की उत्कृष्टता का द्योतक है।

3. व्यापार - गुप्तकाल का व्यापार अपनी उन्नति की चरमसीमा पर था। व्यापार के दो रूप थे। प्रथम श्रेष्ठि होते थे जो एक स्थान पर अपनी दुकान खोलकर व्यापार करते थे। दूसरे सार्थवाह होते थे जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक समान पहुंचाते थे। सार्थवाह का व्यापार विदेशों में भी होता था। गुप्तकाल में व्यापार स्थलमार्ग एवं जलमार्ग के माध्यम से होता था। जलमार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं परन्तु बड़ी-बड़ी पोतों का निर्माण हो चुका था, जिससे सामुद्रिक व्यापार होता था। गुप्तकाल में मथुरा, पाटलिपुत्र, विदिशा, उज्जयिनी आदि प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे।

4. आयात एवं निर्यात - गुप्तकाल में लाल मिर्च, हाथीदांत, मोती, रेशम, हीरा, मसाले, चन्दन, लौंग, शंख आदि चीजों का निर्यात होता था। भारत से अनेक सूती वस्त्रों का भी निर्यात होता था। यूनान, अरब, फारस आदि देशों से भारत में दासियाँ आयात होती थीं। अरब फारस से घोड़े भी भारत में मंगाये जाते थे।

5. श्रेणी व निगम - गुप्तकालीन अभिलेखों, साहित्यों एवं मुद्राओं से ज्ञात होता है कि देश में व्यापारियों का एक संघ था, जिसे श्रेणी कहा जाता था। अनेक श्रेणियाँ मिलकर बड़े-बड़े नगरों में निगमों का निर्माण करती थीं उच्च महाजनों का संगठन निगम कहलाता था। वैशाली नगर के उत्खनन से श्रेष्ठि सार्थवाह कुलिक निगम की 274 मोहरें प्राप्त हुई हैं। नारद स्मृति से विदित होता है कि श्रेणी एवं निगम से कुछ लिखित नियम होते थे, जिनका पालन प्रत्येक सदस्यों के लिए अनिवार्य था जो सदस्य नियमों का उल्लंघन करता था, वह अपनी सदस्यता खो देता था। श्रेणी एवं निगम व्यापारिक कार्यों के अतिरिक्त लोकोपकारी कार्यों को भी करती थी।

6. ब्याज - याज्ञवल्क्य स्मृति से विदित होता है कि समाज में ऋण का प्रचलन था, जिस पर ब्याज देना पड़ता था। कर्ण के अनुसार ऋण पर ब्याज देने की प्रथा थी। ब्राह्मण 2 प्रतिशत, क्षत्रिय 3 प्रतिशत, वैश्य 4 प्रतिशत एवं शूद्र को 5 प्रतिशत ब्याज देना पड़ता था। स्वर्ण वस्तुओं पर दो प्रतिशत, अनाज पर तीन प्रतिशत, कपड़ा पर चार प्रतिशत एवं तरल पदार्थों पर आठ प्रतिशत ब्याज देना पड़ता था। श्रेणी एवं निगम को जो ब्याज मिलता था, उससे लोकोपकारी कार्य करते थे।

7. मुद्रा - गुप्तकाल की असंख्य मुद्रायें प्राप्त हुई हैं जिससे गुप्तकाल के आर्थिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। गुप्त शासकों की सबसे अधिक मुद्रायें स्वर्ण की मिलती है। इसके अतिरिक्त रजत एवं ताम्र मुद्रायें भी मिलती हैं। वस्तु के विनिमय का माध्यम मुद्रा ही था। मुद्रा के माध्यम से ही वेतनभोगी कर्मचारियों को वेतन दिया जाता था। फाह्यान के यात्रा विवरण से विदित होता है कि छोटी-छोटी वस्तुओं के क्रय-विक्रय में कौड़ियों का भी प्रयोग किया जाता था।

व्यवसायियों के संगठन का कारण डॉ० फिक महोदय ने - व्यवसायिओं के संगठन के निम्नांकित तीन कारण बताये हैं, जिसके कारण 'श्रेणी' की उत्पत्ति हुई-

1. प्राचीनकाल से ही कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था की नींव पड़ी थी। प्रत्येक वर्ण को अपने कर्मे को करना पड़ता था। दूसरे शब्दों में व्यवसाय वंशानुक्रम पर आधारित था। कुम्हार के पुत्र को कुम्हारगीरी, लोहार के पुत्र को लोहारी और बढ़ई के पुत्र को बढ़गिरी करनी पड़ती थी। वंशानुक्रम के अनुसार व्यवसाय के कारण लोग संगठित होने लगे थे।

2. प्राचीनकाल के प्रत्येक नगर की अलग-अलग वीथि (गली) में अलग-अलग व्यवसाय था। उदाहरण के लिए 'दन्तकार विधि' में हाथी दांत के काम करने वाले ही व्यवसायी रहते थे। एक ही विधि में एक ही प्रकार के व्यवसाय के कारण व्यवसायियों के मध्य संगठन होना आवश्यक हो गया था।

3. जातक कथाओं में 'ज्येष्ठ शब्द का उल्लेख मिलता है जैसे- 'कुम्मार ज्येष्ठ' मालाकार ज्येष्ठ' आदि। प्रत्येक संगठित श्रेणियों का एक ज्येष्ठ होता है। समुद्द वणिज जातक से विदित होता है कि पांच सौ व्यवसायिक परिवारों के मध्य एक ज्येष्ठ होता था। समाज में 'ज्येष्ठ' की बड़ी प्रतिष्ठा थी।

श्रेणियों के कार्य अथवा महत्व - प्राचीन भारत में श्रेणियों के निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य थे - 1. मूल्य पर नियंत्रण श्रेणियों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मूल्यों पर नियंत्रण करना था। मनमानी मूल्यों पर कोई वस्तु न बिके, इसके लिए कठोर नियम थे। इन श्रेणियों के माध्यम से कार्य की प्रणाली में भी सुधार हुआ। प्रत्येक व्यापारी बिना श्रेणी के परामर्श के व्यापार नहीं कर सकता था। मूल्य पर नियंत्रण करने के लिए श्रमिकों का वेतन तथा उनका समय निश्चित कर दिया गया। इससे श्रमिकों के स्तर में गिरावट नहीं आने पायी।

2. कानून का निर्माण - प्राचीन भारत में श्रेणियां स्वयं कानून बनाती थीं। परन्तु इनका कानून व्यापार से ही संबंधित होता था। राजा द्वारा इन कानूनों को मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी के प्रत्येक सदस्य के लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य था। जातक कथाओं से विदित होता है कि जो इन नियमों का पालन नहीं करते थे, उन्हें सदस्यता से निष्कासित कर दिया जाता था। स्मृतियों में वर्णन मिलता है कि पथभ्रष्ट सदस्य को उस व्यापार से वंचित कर दिया जाता था जो उसे वंशानुक्रम से प्राप्त होता था। यह नियम अत्यधिक कठोर था। कभी-कभी इस दंड व्यवस्था के अंतर्गत व्यापारी की स्थिति भिखारी सदृश हो जाती थी।

3. सामाजिक कार्य - आर्थिक कार्य के अतिरिक्त श्रेणियाँ सामाजिक कार्य भी करती थीं। बौद्ध ग्रन्थों से विदित होता है कि संघी न्याय सभा अपने सदस्यों और उनकी पत्नियों के विवाद को भी हल करती थी तथा विधवाओं व अनाथों की सेवा भी करती थी। इसके अतिरिक्त यदि किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती तो उसकी विधवा पत्नी एवं यदि कोई सदस्य बीमार हो जाता तो उसकी सुरक्षा का कार्य श्रेणियों पर ही था।

4. जातियों के उदय में सहयोग - श्रेणियाँ पंचायतों के रूप में कार्य कर रही थीं। इन्ही पंचायतों के आधार पर जातियों का उदय हुआ। जैसाकि बाशम ने लिखा है- “इस क्षेत्र में उनके अधिकार और कार्य आधुनिक जातीय पंचायतों के अनुरूप थे और यद्यपि कुछ विद्वान इससे सहमत न होंगे किन्तु हम निश्चय रूप से इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि व्यवसाय के आधार पर बनी जातियों के उदय के आर्थिक संघों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।"

5. ब्याज पर ऋण देने का कार्य - श्रेणियाँ व्यापारियों को ऋण भी देती थीं। व्यापारियों के अतिरिक्त समाज में अन्य वर्गों के सदस्यों को भी ऋण देती थी। ऋण देने का क्या आधार था? इसका ठीक-ठीक जानकारी हमें प्राप्त नहीं होती है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि श्रेणियों को जिसके ऊपर विश्वास होता था, उसी को ऋण देती थी। इसे हम आधुनिक युग के बैंक की संज्ञा दे सकते हैं। ऋण ब्याज पर ही दिया जाता था। ब्याज की दर भिन्न-भिन्न काल में अलग-अलग थी। व्यापारियों पर ब्याज की दर अन्य लोगों की अपेक्षा कम थी। इस प्रकार ब्याज पर ऋण देने के कारण श्रेणियों के पास काफी धन एकत्र हो जाता था।

6. अर्थदंड का कार्य - श्रेणी के नियमों के उल्लंन करने वाले सदस्यों पर अर्थदंड भी लगाया जाता था। कभी-कभी व्यापारी व समाज के अन्य सदस्य जो श्रेणी से ब्याज पर ऋण लिये रहते थे और निश्चित समय के अन्दर ऋण को नहीं चुका पाते थे तो ब्याज के अतिरिक्त अर्थदंड की भी व्यवस्था थी। राजा एवं शासन द्वारा इस प्रकार की अर्थदंड व्यवस्था को मान्यता प्राप्त हो चुकी थी।

7. धार्मिक कार्य - ब्याज पर ऋण देने तथा दंड लगाने से श्रेणियों के पास पर्याप्त धन एकत्र हो जाता था। इस धन को धार्मिक कार्यों में व्यय किया जाता था। अनेक शिलालेखों में आर्थिक संघ द्वारा दिये गये दामों का उल्लेख मिलता है। श्रेणियों ने धार्मिक कार्यों की देखभाल के लिए एक अलग विभाग ही खोल दिया था, जिसका सर्वोच्च पदाधिकारी न्यायरक्षक कहलाता था। न्यायरक्षक नवीन मंदिरों का निर्माण एवं पुराने मंदिरों का जीर्णोद्वार कराते थे बौद्ध मठों का निर्माण कराते थे तथा भिक्षुओं को प्रत्येक वर्ष परिधान बनवाते थे तथा दीन दुःखियों को अन्न व वस्त्र भी दान करते थे।

8. सैनिक कार्य - श्रेणियां सैन्य व्यवस्था का भी कार्य किया करती थी। इनके अपने निजी सैनिक होते थे, जिन्हें श्रेणियां द्वारा मासिक वेतन दिया जाता था। राजा द्वारा इन्हें सेना रखने की अनुमति प्राप्त होती थी। किसी विशेष परिस्थिति में राजा को जब सेना की आवश्यकता होती थी तो श्रेणियों के सैनिक सहायक सेना के रूप में कार्य करते थे। परन्तु प्रत्येक श्रेणियों को सेना रखने की अनुमति न थी। कुछ उच्च एवं धनी श्रेणियों को ही सेना रखने का अधिकार प्राप्त था।

9. आपसी दंगों तथा झगड़ों को निपटाने का कार्य - बौद्ध ग्रन्थों से विदित होता है कि व्यापारियों के मध्य प्रायः किसी न किसी प्रकार पर झगड़ा उत्पन्न हो जाया करता था। इन दंगों एवं झगड़ों को निपटाने का कार्य भी श्रेणियाँ का ही था। कभी-कभी एक आर्थिक संघ का दूसरे आर्थिक संघ से भी संघर्ष हो जाता था। इस संघर्ष को पंचायत द्वारा दूर किया जाता था। परन्तु इस प्रकार संघर्ष बहुत कम होता था।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन समाज में श्रेणियों का बड़ा महत्व था। यदि यह कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी कि श्रेणियाँ राज्य की रीढ़ की हड्डी के समान थी। श्रेणियों द्वारा मूल्य में वृद्धि न होने देना, उत्पादन शक्ति को विकसित करना, श्रमिकों का स्तर बनाये रखना, दीन-दुखियों औरं गरीबों की मदद करना आदि के कारण समाज की स्थिति अत्यधिक अच्छी हो गयी थी।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? भारतीय दर्शन में इसका क्या महत्व है?
  2. प्रश्न- जाति प्रथा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- जाति व्यवस्था के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए। इसने भारतीय
  4. प्रश्न- ऋग्वैदिक और उत्तर वैदिक काल की भारतीय जाति प्रथा के लक्षणों की विवेचना कीजिए।
  5. प्रश्न- प्राचीन काल में शूद्रों की स्थिति निर्धारित कीजिए।
  6. प्रश्न- मौर्यकालीन वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश डालिए। .
  7. प्रश्न- वर्णाश्रम धर्म से आप क्या समझते हैं? इसकी मुख्य विशेषताएं बताइये।
  8. प्रश्न- पुरुषार्थ क्या है? इनका क्या सामाजिक महत्व है?
  9. प्रश्न- संस्कार शब्द से आप क्या समझते हैं? उसका अर्थ एवं परिभाषा लिखते हुए संस्कारों का विस्तार तथा उनकी संख्या लिखिए।
  10. प्रश्न- सोलह संस्कारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में संस्कारों के प्रयोजन पर अपने विचार संक्षेप में लिखिए।
  12. प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के प्रकारों को बताइये।
  13. प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के अर्थ तथा उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए तथा प्राचीन भारतीय विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इस कथन पर भी प्रकाश डालिए।
  14. प्रश्न- परिवार संस्था के विकास के बारे में लिखिए।
  15. प्रश्न- प्राचीन काल में प्रचलित विधवा विवाह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
  17. प्रश्न- प्राचीन भारत में नारी शिक्षा का इतिहास प्रस्तुत कीजिए।
  18. प्रश्न- स्त्री के धन सम्बन्धी अधिकारों का वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- वैदिक काल में नारी की स्थिति का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  20. प्रश्न- ऋग्वैदिक काल में पुत्री की सामाजिक स्थिति बताइए।
  21. प्रश्न- वैदिक काल में सती-प्रथा पर टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- उत्तर वैदिक में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  23. प्रश्न- ऋग्वैदिक विदुषी स्त्रियों के बारे में आप क्या जानते हैं?
  24. प्रश्न- राज्य के सम्बन्ध में हिन्दू विचारधारा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  25. प्रश्न- महाभारत काल के राजतन्त्र की व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
  26. प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्य के कार्यों का वर्णन कीजिए।
  27. प्रश्न- राजा और राज्याभिषेक के बारे में बताइये।
  28. प्रश्न- राजा का महत्व बताइए।
  29. प्रश्न- राजा के कर्त्तव्यों के विषयों में आप क्या जानते हैं?
  30. प्रश्न- वैदिक कालीन राजनीतिक जीवन पर एक निबन्ध लिखिए।
  31. प्रश्न- उत्तर वैदिक काल के प्रमुख राज्यों का वर्णन कीजिए।
  32. प्रश्न- राज्य की सप्त प्रवृत्तियाँ अथवा सप्तांग सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत क्या है? उसकी विस्तृत विवेचना कीजिये।
  34. प्रश्न- सामन्त पद्धति काल में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
  35. प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्य के उद्देश्य अथवा राज्य के उद्देश्य।
  36. प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्यों के कार्य बताइये।
  37. प्रश्न- क्या प्राचीन राजतन्त्र सीमित राजतन्त्र था?
  38. प्रश्न- राज्य के सप्तांग सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- कौटिल्य के अनुसार राज्य के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  40. प्रश्न- क्या प्राचीन राज्य धर्म आधारित राज्य थे? वर्णन कीजिए।
  41. प्रश्न- मौर्यों के केन्द्रीय प्रशासन पर एक लेख लिखिए।
  42. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  43. प्रश्न- अशोक के प्रशासनिक सुधारों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  44. प्रश्न- गुप्त प्रशासन के प्रमुख अभिकरणों का उल्लेख कीजिए।
  45. प्रश्न- गुप्त प्रशासन पर विस्तृत रूप से एक निबन्ध लिखिए।
  46. प्रश्न- चोल प्रशासन पर एक निबन्ध लिखिए।
  47. प्रश्न- चोलों के अन्तर्गत 'ग्राम- प्रशासन' पर एक निबन्ध लिखिए।
  48. प्रश्न- लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में मौर्य प्रशासन का परीक्षण कीजिए।
  49. प्रश्न- मौर्यों के ग्रामीण प्रशासन पर एक लेख लिखिए।
  50. प्रश्न- मौर्य युगीन नगर प्रशासन पर प्रकाश डालिए।
  51. प्रश्न- गुप्तों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था पर टिप्पणी कीजिये।
  52. प्रश्न- गुप्तों का प्रांतीय प्रशासन पर टिप्पणी कीजिये।
  53. प्रश्न- गुप्तकालीन स्थानीय प्रशासन पर टिप्पणी लिखिए।
  54. प्रश्न- प्राचीन भारत में कर के स्रोतों का विवरण दीजिए।
  55. प्रश्न- प्राचीन भारत में कराधान व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
  56. प्रश्न- प्राचीनकाल में भारत के राज्यों की आय के साधनों की विवेचना कीजिए।
  57. प्रश्न- प्राचीन भारत में करों के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
  58. प्रश्न- कर की क्या आवश्यकता है?
  59. प्रश्न- कर व्यवस्था की प्राचीनता पर प्रकाश डालिए।
  60. प्रश्न- प्रवेश्य कर पर टिप्पणी लिखिये।
  61. प्रश्न- वैदिक युग से मौर्य युग तक अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व की विवेचना कीजिए।
  62. प्रश्न- मौर्य काल की सिंचाई व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
  63. प्रश्न- वैदिक कालीन कृषि पर टिप्पणी लिखिए।
  64. प्रश्न- वैदिक काल में सिंचाई के साधनों एवं उपायों पर एक टिप्पणी लिखिए।
  65. प्रश्न- उत्तर वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था पर टिप्पणी लिखिए।
  66. प्रश्न- भारत में आर्थिक श्रेणियों के संगठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए।
  67. प्रश्न- श्रेणी तथा निगम पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- श्रेणी धर्म से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए
  69. प्रश्न- श्रेणियों के क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालिए।
  70. प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
  71. प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
  72. प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
  73. प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
  75. प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

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